अत्याचारी मुगल शासन के विरुद्ध दशमेश पिता ने बजाई रणभेरी
नरेंद्र सहगल
गुरु नानकदेव जी ने भारतवर्ष की सांस्कृतिक धरोहर हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज के संर्वधन एवं पुनुर्त्थान के लिए भक्तिमार्ग का श्रीगणेश किया था. आगे चलकर दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी ने समय की अवश्यकता के अनुसार उसी भक्तिमार्ग को शक्ति-मार्ग में परिवर्तित करके विधर्मी/विदेशी मुगल शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया.
दशम् गुरु ने स्वयं को भगवान श्रीराम के सूर्यवंश से जोड़ा है. उनकी आत्मकथा के अनुसार गुरु नानकदेव जी और दशम् गुरु के दोनों बेदी और सोडी वंशों का संबंध श्रीराम के पुत्र लव और कुश से है. दूसरी और उन्होंने अपने अवतरण को श्रीकृष्ण द्वारा गीता में दिए गए उस आश्वासन से जोड़ा है कि ‘जब भी अधर्म का बोलबाला होगा, मैं धर्म की स्थापना हेतु धरा धाम पर आऊँगा.’ गुरु गोबिंद सिंह जी ने भी – ‘याही काज धरा जनमे’ कह कर शस्त्र धारण की प्रक्रिया को समयोचित ठहराया.
दशमेश पिता ने छत्रपति शिवाजी की भांति प्रत्येक कार्य को आदि शक्ति देवी के पूजन से प्रारंभ किया है. उन्होंने अपने को कालका देवी का पुत्र माना है. उनके शब्दों में –
‘सर्वकाल है पिता हमारा…देवि कालका मात हमारी.’
इसी तरह दशमेश गुरु ने अपने पूर्व जन्म को भी आदि शक्ति देवी के साथ जोड़ते हुए कहा है –
‘सपत स्त्रिन्ग तिहि नाम कहावा….पंडराज जहां जोग कमावा..
तहं हम अधिक तपस्या साधी….महाकाल कालका अराधी.’
गुरु के जीवनोद्देश्य : दुष्टों के वर्चस्व को समाप्त करके ‘खालसे का राज’ की स्थापना को समझने के लिए किरपाण (शक्ति) की आराधना को जान लेना आवश्यक है. भारतीय संस्कृति के इस पक्ष को दशम् गुरु ने अपनी एक सचना (कविता) में बहुत ही सुंदर शब्दों में प्रस्तुत किया है –
नमो उग्रदेती अनेती सवैया, नमो योग योगेश्वरी योग मैया.
नमो केहरी-वाहनी शत्रु-हेती, नमो शारदा ब्रह्म-विद्या पढ़ेती.
नमो ज्योति-ज्वाला तुमै वेद गावैं, सुरासर ऋषीश्वर नहीं भेद पावैं.
तुही काल अकाल की जोति छाजै, सदा जै, सदा जै, सदा जै विराजै.
यही दास मांगे कृपा सिंधु कीजै, स्वयं ब्रह्म की भक्ति सर्वत्र दीजै.
अगम सूर बीरा उठहिं सिंह योधा, पकड़ तुरकगन कउ करैं वै निरोधा.
सकल जगत महि खालसा पंथ गाजै, जगै धर्म हिन्दू सकल दुंद भाजै.
तुही खंड ब्रह्मड भूमे सरूपी, तुही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र अनुपी.
तुही ब्राम्हाणी वेद पारण सावित्री, तुही धर्मिणी करण-कारण पवित्री.
तुही हरि-कृपा सिउ आगम रूप होई, सवै पच मुए, पार पावत न कोई.
निरंजन स्वरुपा तु ही आदि राणी, तु ही योग-विद्या तुहि ब्रम्हा-वाणी.
अपुन जानकर मोहि लीजै बचाई, असुर पापीगन मार देवउ उड़ाई.
यही आस पूरण करहु तुम हमारी, मिटै कष्ट गऊअन छूटै खेद भारी.
फतह सत गुरु की सबन सिउँ बुलऊँ, सबन कउ शबद वाहि वाहे दृढ़ाऊँ.
करो खालसा पंथ तीसर प्रवेशा, जंगहि सिंह योद्धा घरहिं नील वेषा.
सकल राछसन कउ पकड़ वै खपावै, सबी जगत सिव धुन फतहि बुलावैं.
यही वीनती खास हमरी सुनीजै, असुर मार कर रच्छ गऊअन करीजै.
इस कविता में भारत की भावात्मक एकता के लगभग सभी चिन्हों को दशम् गुरु ने दर्शाया है. गऊ – ब्रह्म, वेद, देवी, विष्णु, शिव, इन्द्र एवं हिन्दू इत्यादि शब्द विशाल राष्ट्रीय मन का परिचय देते हैं.
इसी प्रकार दशम् गुरु की एक अन्य कविता भी वीर-रस का संचार करती है –
यही देहि वर मोहि सत गुरु धियाऊँ, असुर जीतकर धर्म नौबत बजाऊँ.
मिटै सब जगत सिउ तुर्कन द्वन्द शोरा, बचहि संत सेवक खपंहि दुष्ट चोरा.
सबै सृष्टि परजा सुखी हुई बिराजे, मिटै दुख-संताप आनंद गाजे.
न छाडऊँ कहूँ दुष्ट असुरन निशानी, चले सब जगत महि धरम की कहानी.
इन पंक्तियों में दशमगुरु ने जालिम तुर्कों (मुसलमानों) के अंत की कामना के साथ संत शक्ति (समाज) के सुख की कामना भी की है. स्पष्ट है कि गुरु भविष्य में सम्पन्न होने वाले अपने संघर्ष एवं औरंगजेब के शासन के विरुद्ध जंग की योजना को साकार रूप दे रहे थे. गुरु के इस आह्वान में वह शक्ति थी, जिसने विधर्मी साम्राज्य की जड़ों को हिलाकर रख दिया था.
गुरु अत्याचारी मुगलों से टक्कर लेने के लिए भारतीयों को तैयार करने में अपने जीवन का प्रत्येक क्षण लगा रहे थे. केवल पंजाब ही नहीं तो समस्त भारत में विभाजित हिन्दुओं को संगठित करके एक प्रचंड शक्ति के रूप में तैयार किया और अकाल पुरख से ‘खालसा’ की विजय के लिए प्रार्थना की.
देह शिवा वर मोहे इहै, शुभ कर्मन ते कबहुं न डरूँ.
न डरूँ अरि से जब जाय लरूँ, निश्चय कर अपनी जीत करूँ.
उल्लेखनीय है कि गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा इस तरह निडरता एवं निर्भीकता के साथ मुगलों के विरुद्ध जंग का एलान करना समय की अवश्यकता थी. भारत में हिन्दू चिरकालिक मुसलमानी शासन के कारण ऐसे दब गए थे कि प्रतिकार करने की शक्ति का लोप हो चुका था. विदेशी शासकों के ‘जोर और जब्र’ के कारण हिन्दू समाज के अनेक वर्ग जो मेहनत मज़दूरी करके अपना जीवन यापन करते थे, वे मुसलमान होते जा रहे थे.
हिन्दू मंदिरों को तोड़ा जा रहा था. पाठशालाओं एवं विद्यापीठों को तबाह करके उनके स्थान पर मस्जिदें और मकतब बनाए जा रहे थे. हिन्दुओं के धर्मग्रंथों को जलाना, गऊओं की सार्वजनिक रूप से हत्याएं करना, तलवार के जोर पर हिंदुओं को मुसलमान बनाना, हिन्दू युवतियों को बलपूर्वक उठाकर मुगल शासकों के हरमों में रखना, हिन्दुओं को अपने धार्मिक अनुष्ठानों को ना करने पर मजबूर करना इत्यादि अमानवीय कार्य इस्लाम के असूलों के अनुकूल समझे जाते थे.
डॉ. जयराम मिश्र अपनी पुस्तक श्रीगुरु ग्रंथ दर्शन में लिखते हैं – “शताब्दियों के अपमान, अत्याचार, राजनीतिक दासता के फलस्वरूप हिन्दू अपना शौर्य, आत्मगौरव और आत्मविश्वास खो बैठे थे. धर्म का वास्तविक स्वरूप लुप्त हो गया था. मुसलमानों द्वारा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन एवं हिन्दुओं में मानसिक कमजोरी के कारण बाहरी आडंबरों की प्रबलता आ गई थी.”
प्रसिद्ध इतिहासकार इंदुभूषण बैनर्जी अपनी पुस्तक एवोल्यूशन ऑफ खालसा में लिखते हैं – “मुसलमान शासकों ने धर्म परिवर्तन के कई अस्त्र निकाले, जिनमें यात्रा कर, तीर्थ यात्रा कर, धार्मिक मेलों, उत्सवों और जुलूसों पर कठोर प्रतिबंध, नए मंदिरों के निर्माण पर कठोर प्रतिबंध, हिन्दुओं के धार्मिक नेताओं का दमन, तथा मुसलमान होने पर पुरस्कार देने आदि मुख्य थे. इन्हीं अस्त्रों द्वारा वे हिन्दू धर्म को सर्वथा मिटा देना चाहते थे.”
उपरोक्त भयावह परिस्थितियों में हिन्दू समाज में एकता स्थापित करने तथा उसे मुगलों के विरुद्ध जंग के लिए तैयार करने का कार्य दशम् पिता ने खालसा-पंथ की स्थापना के साथ ही शुरू कर दिया.
……….क्रमश:
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक)