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हैदराबाद मुक्ति संग्राम : हैदराबाद नि:शस्त्र प्रतिरोध – निजाम रियासत का स्वरूप

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डॉ. श्रीरंग गोडबोले

आज जब देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि देश के सभी हिस्से 1947 में स्वतंत्र नहीं हुए थे. हैदराबाद 17 सितंबर, 1948 को, दादरा नगर हवेली 2 अगस्त, 1954 को, पुडुचेरी 1 नवंबर, 1954 को और गोवा 19 दिसंबर, 1961 को स्वतंत्र हुए. भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में इन सभी हिस्सों में चले स्वतंत्रता संघर्ष भी शामिल हैं. इन सबमें हैदराबाद मुक्ति संग्राम का इतिहास तो विशेष संघर्ष और बलिदान का इतिहास है.

मुगल बादशाह फर्रुखसियर ने (शासन् काल 1713 -1719) 1719 में मीर कमरुद्दीन नाम के सरदार को दक्षिण में भेजा. उसके काम से खुश होकर उसे ‘निजाम-उल-मुल्क’ (राज्य का प्रबंधक) की उपाधि दी गई. बाद में मुहम्मद शाह (1719-1748) ने उसे ‘असफजाह’ (बिब्लिकल राजा सोलोमन के असफ नाम के वजीर के समतुल्य, जो मुगल सल्तनत का सर्वोच्च पद था) की उपाधि प्रदान की. मुगल साम्राज्य की खस्ता हालत समझकर मीर कमरुद्दीन ने 1724 में आयोजित एक निजी समारोह में स्वतंत्र हैदराबाद राज्य की घोषणा की. भारत में अंग्रेजों के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए बाद में हैदराबाद के निजाम ने उनसे मैत्री कर ली. सन् 1778 से अंग्रेजों ने अपना निरीक्षक रेजिडेंट हैदराबाद राज्य में रखना शुरू कर दिया. अक्तूबर 1800 में ब्रिटिश सरकार और हैदराबाद निजाम के बीच एक संधि हुई, जिसके परिणामस्वरूप  हैदराबाद को ‘संरक्षित राज्य’ घोषित किया गया. सन् 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने में निजाम ने अंग्रेजों का साथ दिया. अंग्रेजों और निजाम के मध्य 1936 में हुई संधि के अनुसार बरार पर निजाम की सत्ता को मान्यता दी गई. मराठों द्वारा निजाम को अनेक लड़ाइयों में धूल चटाने के बाद भी असफजाही घराने का यह राज्य 1948 तक चला.

सितंबर 1938 से अगस्त 1939 के दौरान हैदराबाद राज्य में नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया गया. हैदराबाद के पुराने नाम के कारण उसे ‘भाग्यनगर निःशस्त्र प्रतिरोध’ भी कहा जाता है. यह संघर्ष प्रमुख रूप से आर्य समाज, हिन्दू महासभा और स्टेट कांग्रेस द्वारा किया गया. प्रो. चंद्रशेखर लोखंडे द्वारा लिखित पुस्तक ‘हैदराबाद मुक्ति संघर्ष का इतिहास’ (श्री घूड़मल प्रह्लाद कुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिंडोन, राजस्थान, 2004) में इस मुक्ति संग्राम में आर्य समाज के योगदान का विस्तृत विवरण है. श्री शंकर रामचंद्र उपाख्य मामा राव दाते द्वारा लिखित पुस्तक ‘भाग्यनगर स्ट्रगल: ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ द मूवमेंट लेड बाय हिन्दू महासभा इन हैदराबाद स्टेट 1938-1939’ (काल प्रकाशन, पुणे, 1940) में हिन्दू महासभा के योगदान की जानकारी है. स्टेट कांग्रेस के योगदान का विवरण तो अनेक पुस्तकों में उपलब्ध है.

हैदराबाद राज्य का आंतरिक निरीक्षण

हैदराबाद राज्य के राजकीय कार्यों के वार्षिक वृत्तांतों का संदर्भ अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष और अधिवक्ता लक्ष्मण बलवंत उपाख्य अण्णा साहब भोपटकर ने ‘हैदराबाद राज्य का आंतरिक निरीक्षण’ आलेख में (केसरी, 17 मार्च, 1939) किया है. इस आलेख में निजाम रियासत की वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है. लोखंडे और दाते की पुस्तकों में भी निजाम रियासत के शासन् का वर्णन है. निजाम रियासत का स्वरूप सूत्ररूप में निम्नानुसार था –

(अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष और अधिवक्ता लक्ष्मण बलवंत उपाख्य अण्णा साहब भोपटकर)

महाराष्ट्र, बरार, कर्नाटक और आंध्र से घिरे हैदराबाद राज्य का क्षेत्रफल लगभग 82,698 वर्ग मील था. उसमें से 9515 वर्ग मील क्षेत्रफल जंगल आदि के लिए आरक्षित किया गया था. अर्थात् क्षेत्रफल की दृष्टि से यह राज्य बंगाल प्रांत जितना बड़ा था (उस समय मुंबई इलाके का क्षेत्रफल 70,035 वर्ग मील था और इंग्लैंड-स्कॉटलैंड का संयुक्त क्षेत्रफल 80,752 वर्ग मील था). उसमें पांच बड़े शहर, 118 छोटे शहर और 21,708 गांव थे. हैदराबाद राज्य के मराठवाड़ा विभाग में औरंगाबाद, परभणी, नांदेड़, उस्मानाबाद और लातूर सहित पांच जिले थे.

जनसंख्या (लगभग 1.4 करोड़) की दृष्टि से विचार करें तो हैदराबाद सबसे बड़ा राज्य था, जिसमें 1 करोड़ 29 लाख 28 हजार 876 हिन्दू, 15 लाख 7 हजार 272 मुस्लिम, 1 लाख 51 हजार 382 ईसाई, 7 हजार 84 पारसी और 27 यहूदी थे. हिन्दुओं में 6,015,172 लोग तेलुगू, 3,296,858 मराठी तथा 1,536,928 कन्नड़ भाषी थे. सन् 1901 और 1931 की जनगणना के अनुसार राज्य में हिन्दू और मुसलमानों के अनुपात अनुक्रम की बात करें तो 1901 में हिन्दू 88.6% और मुस्लिम 10.4% तथा 1931 में हिन्दू 84% और मुस्लिम 10.6% थे.

निजाम के पास न केवल सर्वोच्च कार्यकारी अधिकार थे, बल्कि न्याय और नियम तय करने का अधिकार भी था. सात सदस्यीय कार्यकारी मंडल निजाम के हाथों की कठपुतली था, जिसमें मात्र एक हिन्दू सदस्य था. इक्कीस सदस्यों वाला विधान मंडल तो मानो मजाक ही था. वह घंटे-दो घंटे के लिए वर्ष में एक-दो बार मिलता था. ब्रिटिश भारत के महापालिका कानून जैसा कोई कानून भी राज्य में नहीं था. स्थानीय जिला एवं तहसील मंडल किसी भी प्रकार के अधिकारों से विहीन थे. प्रजा पर मनमाने तरीके से शासन् करने की छूट अंग्रेजों ने निजाम को दे रखी थी.

शेरी जमीन (निजाम के नाम पर जायदाद) एवं महलों से आने वाली निजाम की निजी आय को छोड़कर राज्य की वार्षिक आय साढ़े आठ करोड़ रुपये थी. निजाम की निजी आय प्रतिदिन लगभग 60 हजार रुपये थी. इसके बाद भी राज्य की आय से 50 लाख रुपये राजकीय परिवार के खर्च के रूप में निजाम लेते थे. विश्व के संपन्नतम धनाढ्य लोगों में निजाम की गणना होती थी.

शिक्षा व्यय में बेशुमार वृद्धि के बावजूद सर्वसामान्य शिक्षा, विशेषत: प्राथमिक शिक्षा, में राज्य अत्यधिक पिछड़ा था. सन् 1881 में प्रति हजार साक्षरता 37 थी, जबकि शिक्षा पर कुल खर्च रु. 2,29,220 था. सन् 1921 में प्रति हजार साक्षरता 33 थी और खर्च रु. 6,829,902 था. सन् 1921 से 1936 के कालखंड में शिक्षा पर होने वाले व्यय में बेशुमार वृद्धि होने पर भी उस अनुपात में प्रति हजार साक्षरता दर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई.

(निजाम उस्मान अली खान)

सन् 1918 में उस्मानिया विश्वविद्यालय का आरंभ हुआ. लाखों रुपये भवन निर्माण आदि पर खर्च किए गए. पर शिक्षा प्रसार में बढ़ोत्तरी लगभग शून्य ही रही. राज्य की मुस्लिम जनसंख्या मात्र 10% होने पर भी उस्मानिया विश्वविद्यालय में मुस्लिम अध्यापक 75 प्रतिशत थे और उनमें से अधिकांश राज्य के बाहर से थे. साहित्य तथा तकनीकी शिक्षा की जगह इस्लामी सभ्यता और उर्दू भाषा को बढ़ावा देने वाले इस विश्वविद्यालय में इस्लामी शिक्षा पर जोर था, जिस पर भारी भरकम राशि खर्च की जाती थी.

चूँकि निजी शिक्षण संस्थाएं हिन्दू आचार-विचारों का पोषण करती थीं. इसलिए वे चल ही न पाए. इस दृष्टिकोण से शैक्षिक क्षेत्र के सभी प्रयासों पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे. सन् 1923 में निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या 4063 थी, जो सन् 1926 में घटकर 3142 रह गई. सन् 1935 में उनकी संख्या और भी घटकर 500 रह गयी और 1939 में तो वे लगभग समाप्ति के कगार पर पहुंच गई.

सन् 1924 से 1931 के कालखंड में मुस्लिम संस्थाओं को जहां लाखों रुपयों की सरकारी मदद मिली, वहीं 90 प्रतिशत आबादी के बावजूद हिन्दू संस्थाओं के हिस्से में कुछेक हजार रुपये आए. इसके अतिरिक्त राज्य के बाहर की मुस्लिम संस्थाओं को 56 लाख रुपये प्रतिवर्ष दिए जा रहे थे.

मजहबी मामलों के लिए राज्य में ‘उमुरे मजहबी’ विभाग था. मस्जिदों, मंदिरों, गिरिजाघरों पर निगरानी रखना और मजहबी शिक्षा संस्थाओं को चलाना और प्रमुख मजहबी उत्सवों के समारोहों में सुगमता लाना’ इस विभाग का घोषित उद्देश्य था, जिस पर सन् 1936 तथा 1937 में क्रमशः 6 लाख और 34 लाख व्यय किये गए. धर्मांतरण के लिए प्रति वर्ष रू. 34 लाख राज्य द्वारा व्यय किये जाते थे. हिन्दुओं के सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों में अड़चनें पैदा करना आम बात थी. हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं को ताक पर रखकर मस्जिद, गिरिजाघर बनाने के लिए सामान्यत: अनुमति दी जाती थी, पर मंदिरों की मरम्मत के लिए भी अनुमति दुष्कर थी. नए मंदिरों के निर्माण की तो बात ही छोड़ दीजिए. हिन्दुओं द्वारा वाद्य यंत्र वादन के समय मस्जिदों के चारों ओर कम से कम 300 फीट की दूरी रखना अनिवार्य था. शियापंथी निजाम की दृष्टि में मुहर्रम का विशेष महत्व था. मुहर्रम और कोई हिन्दू त्यौहार एक साथ यदि आ जाते तो हिन्दू त्योहारों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते थे.

23 जनवरी, 1934 के सरकारी आदेशानुसार आर्य समाज मंदिर के बाहर हवन, सत्संग या प्रवचन करने पर पाबंदी लगाई गई. 12 अप्रैल, 1934 को आर्य समाज मंदिर परिसर में भी प्रवचन आदि पर प्रतिबंध लगाया गया. यदि प्रवचन करना ही था तो उसका प्रारूप प्रस्तुत करने संबंधी आदेश निकाला गया. सन् 1935 में जारी की गई गश्ती क्र. 52 एवं 53 अध्यादेश के अनुसार सभी हिन्दू मंदिरों में घंटानाद, ध्वज फहराना, प्रवचन इत्यादि निषिद्ध घोषित किए गए.

राज्य 90% हिन्दू बाहुल्य होने पर भी राजकीय कार्यों में हिन्दुओं का आनुपातिक प्रतिनिधित्व अत्यल्प था. निजाम सरकार के सचिवालय, अर्थ, मालगुजारी, न्याय, पुलिस और कारागार, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण आदि विभागों में सन् 1931 में कुल 263 हिन्दू, 864 मुस्लिम, 73 ईसाई और 36 पारसी थे. एक हज़ार में दो हिन्दू, सौ में छः मस्लिम, सौ में पांच ईसाई और सौ में पचास पारसी थे! हिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में यह स्थिति 1939 तक और भी शोचनीय हो गई.

पुलिस विभाग में लगभग सभी मुस्लिम थे. पहले से जो थोड़े बहुत हिन्दू थे, उनके स्थान पर नई भर्ती सिर्फ मुस्लिमों की होती थी. राज्य की सेना में हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं था. उसमें अरबी और राज्य के बाहर से मुस्लिमों की भर्ती प्रमुखता से होती थी.

मराठी, तेलुगु भाषाओं को पूर्णतः तिरस्कृत कर उनके स्थान पर उर्दू को थोपने का संकल्प सा था. डेढ़ करोड़ की जनसंख्या में मुठ्ठी भर लोगों की मातृभाषा उर्दू थी. इसके विपरीत शेष लोगों की मातृभाषा कन्नड़, मराठी और तेलुगु थी. फिर भी राज्य में प्राथमिक से विश्वविद्यालयीन शिक्षा तक शिक्षा अरबी और फ़ारसी मिश्रण से बनी हैदराबादी उर्दू में दी जाती थी.

राज्य में निजाम शासन् की मुक्त कंठ से स्तुति करने वाले समाचार पत्रों के अतिरिक्त किसी भी समाचार पत्र अथवा मासिक पत्र का अस्तित्व नहीं था. स्वतंत्र विचारकों को छापाखाना या समाचार पत्र प्रकाशन की अनुमति प्रायः नहीं मिलती थी. अरबी, फ़ारसी और उर्दू मुद्रण के लिए अनुमति थी. 1935 में कुल 618 पुस्तकें मुद्रित की गईं, जिनमें 11 अरबी, 6 फ़ारसी, 475 उर्दू, उर्दू व अरबी 8, उर्दू व तेलुगू 1, अंग्रेजी 13, अंग्रेजी व हिंदी 2, अंग्रजी व अरबी 1, तेलुगु 74, मराठी 25, संस्कृत 5, हिंदी 2, मारवाड़ी 3 और कन्नड़ 10 थीं. सामाजिक अधिकार से हैदराबादी जनता अनभिज्ञ थी. सामान्य से धार्मिक उत्सव या सम्मेलन के लिए भी अधिकारियों की अनुमति अनिवार्य थी.

(दीवान अकबर हैदरी)

दुर्बल घटकों का दमन

निजाम सरकार की नीति से राज्य के किसान त्रस्त थे. रास्ते बनाते समय सरकार द्वारा किसानों से ली गई जमीन के बदले मुआवजा देने का कोई नियम नहीं था. इसके बावजूद रास्ते हेतु ले ली गयी जमीन का भी किसान को कर चुकाना पड़ता था. इसी प्रकार गांव में जानवरों के पोषण हेतु आरक्षित ‘चारागाह’ भी निजाम सरकार द्वारा फसल उगाने के लिए दे दिए गए थे, जिससे जानवरों का पालन किसानों के लिए महंगा हो गया था.

‘दस्तुरुल अम्मल इंतकाल आराजी-जिरायती’ नाम से एक नया कानून निजाम के शाही फरमान से जारी किया गया. इस कानून के तहत यदि कोई किसान अपनी जमीन गिरवी रखकर किसी साहूकार से कर्ज ले लेता था तो बीस वर्षों तक उस जमीन पर होने वाली पैदावार साहूकार के पास कर्ज वापसी के रूप में जाती थी. ऐसी योजना उपरोक्त कानून के माध्यम से अमल में लाई गई. इससे जमीन विक्रय का मालिकाना हक निजाम सरकार ने छीन लिया (महाराष्ट्र, 1 जुलाई, 1934).

हैदराबाद शहर में माली जाति की महिलाएं सब्जियों की टोकरियां सिर पर रखकर लाती थीं. उनसे ‘करोड़गिरी’ यानि जकात ली जाती थी. वही माल जब गांव में जाता तो उस पर पुनः ‘तयबदारी’ ली जाती थी. प्रति टोकरी दो पैसे ‘तयबदारी’ थी. चूँकि उसकी वसूली के लिए निश्चित अधिकारी नियुक्त नहीं थे, इसलिए कोई भी मुस्लिम आकर ‘तयबदारी’ के लिए धौंस देता था. पैसा पास में होता तो तुरंत देकर मालिन मुक्त हो जाती, परन्तु यदि उसके पास पैसा नहीं होता तो वह व्यक्ति टोकरी की सारी भाजी लेकर चलता बनता था (केसरी, 8 मार्च, 1927).

इस्लाम में मत परिवर्तन के दबाव के समक्ष न झुकने वाली तथाकथित अस्पृश्य जाति की ‘अबला’ का दमन ‘केसरी’ के 3 मई, 1927 के अंक में प्रकाशित एक लेख में झलकता है – “माहूर में अमीन (फौजदार) की जगह एक मुसलमान की नियुक्ति की गई है. दिनांक 16/4/27 को माहूर में चैत्र यात्रा थी. उक्त यात्रा के लिए कलाल द्वारा निर्मित धर्मशाला में एकत्रित हिन्दू यात्रियों में से दस-बारह निरपराध यात्रियों को बुलवाकर उपरोक्त मुसलमान अमलदार ने बेंत की छड़ी से बेरहमी से मार-मारकर रातोंरात गांव से निकाल दिया. इससे पूर्व एक दिन माहुर की रामी नामक युवा विधवा महारन (कथित रूप से अस्पृश्य महार जाति की महिला) देवर द्वारा मारपीट की शिकायत देने के लिए पुलिस चौकी गई थी. उस महिला को उसी मुसलमान अमलदार ने लालच दिया कि यदि वह मुसलमान बन जाए तो उसके देवर को जेल में डाल दिया जाएगा. रामी उस लालच को ठुकराकर अपने घर चली गई. फिर भी अमीन उसके यहां बार-बार सिपाही भेज कर धर्म परिवर्तित न करने पर जेल भिजवाने की धमकी दे रहा है.”

हैदराबाद राज्य के हिन्दुओं को समाचार पत्र तथा सार्वजनिक मंच से अपनी व्यथा रखने की अनुमति नहीं थी. पीड़ित हिन्दू जनता द्वारा राज्य के अधिकारियों और अंग्रेजी सत्ता को दिए गए आवेदनों का कोई असर नहीं हुआ. ऐसी स्थिति में निजामशाही के विरोध में प्रतिरोध के शस्त्र निकालने के अलावा हिन्दुओं के पास कोई विकल्प नहीं था.

(क्रमशः)

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